🔷 प्रस्तावना
भारत समेत दुनिया के कई हिस्सों में जल संकट और सूखे की समस्या तेजी से बढ़ रही है। प्राकृतिक वर्षा पर निर्भर रहना अब पर्याप्त नहीं रह गया है, खासकर तब जब मानसून अस्थिर होता जा रहा है। ऐसे में “कृत्रिम वर्षा” यानी Artificial Rain एक क्रांतिकारी तकनीक के रूप में उभर रही है, जो समय पर और नियंत्रित तरीके से वर्षा कराने में मदद कर सकती है। आइए इस ब्लॉग में विस्तार से समझते हैं कि कृत्रिम वर्षा क्या होती है, कैसे काम करती है, इसके फायदे-नुकसान क्या हैं, और भारत में इसका क्या भविष्य है।
🔷 कृत्रिम वर्षा क्या है?
कृत्रिम वर्षा एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें बादलों में कुछ विशेष रसायनों को मिलाकर बारिश कराई जाती है। इसे “Cloud Seeding” कहा जाता है। जब प्राकृतिक बादलों में नमी होती है लेकिन वह पर्याप्त नहीं होती जिससे बारिश हो, तो रासायनिक तत्व जैसे सिल्वर आयोडाइड (Silver Iodide), सोडियम क्लोराइड या सूखा बर्फ (Dry Ice) को उड़नखटोले या विमान की मदद से बादलों में डाला जाता है।
इन रसायनों के कारण बादलों के भीतर जलकण एकत्र होकर भारी हो जाते हैं और पृथ्वी पर वर्षा के रूप में गिरते हैं।
🔷 यह तकनीक कैसे काम करती है?
- बादलों की पहचान:
सबसे पहले मौसम वैज्ञानिक उन बादलों की पहचान करते हैं जिनमें नमी होती है, लेकिन जो बारिश नहीं बरसा रहे। - उपयुक्त समय:
बादलों की स्थिति, हवा की दिशा, तापमान और नमी के आधार पर उपयुक्त समय तय किया जाता है। - सीडिंग प्रक्रिया:
एक विशेष विमान द्वारा सिल्वर आयोडाइड, पोटैशियम आयोडाइड, या ड्राई आइस को बादलों में छोड़ा जाता है। - संघटन प्रक्रिया:
रसायन बादलों के भीतर जाकर नमी को संघटित कर देता है, जिससे जल की बूंदें भारी होकर गिरने लगती हैं — यही कृत्रिम वर्षा है।
🔷 किन स्थितियों में होती है कृत्रिम वर्षा?
- जब लंबे समय तक सूखा पड़ा हो।
- जब फसलें सूखने लगें और सिंचाई की व्यवस्था न हो।
- जंगलों में आग बुझाने के लिए।
- जलाशयों को भरने के लिए।
- शहरों में प्रदूषण को कम करने के लिए भी इसका उपयोग होता है।
🔷 भारत में कृत्रिम वर्षा की स्थिति
भारत में कृत्रिम वर्षा की शुरुआत सबसे पहले 1983 में हुई थी, जब तमिलनाडु में यह प्रयोग किया गया। उसके बाद आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और राजस्थान जैसे राज्यों में समय-समय पर इसका इस्तेमाल किया गया।
हाल ही में दिल्ली सरकार ने प्रदूषण कम करने के लिए 2023 में कृत्रिम वर्षा का निर्णय लिया था, जो अपने आप में एक ऐतिहासिक कदम था।
🔷 कृत्रिम वर्षा के फायदे
- सूखे से राहत:
सूखा प्रभावित इलाकों में फसलों को बचाने के लिए यह तकनीक कारगर सिद्ध हो सकती है। - जंगलों की आग बुझाना:
बड़े जंगलों में लगी आग को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। - जल संकट समाधान:
जलाशयों, बांधों और नदियों में जल स्तर बढ़ाया जा सकता है। - प्रदूषण नियंत्रण:
बड़े शहरों में हवा में मौजूद प्रदूषक कणों को नीचे बैठाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है।
🔷 कृत्रिम वर्षा के नुकसान और चुनौतियां
- प्राकृतिक चक्र में हस्तक्षेप:
मौसम के प्राकृतिक संतुलन में हस्तक्षेप करने से भविष्य में विपरीत प्रभाव पड़ सकते हैं। - लागत बहुत अधिक:
एक बार की सीडिंग प्रक्रिया पर लाखों रुपये खर्च होते हैं, जो गरीब या पिछड़े राज्यों के लिए संभव नहीं। - बादलों की आवश्यकता:
कृत्रिम वर्षा केवल तभी संभव है जब वातावरण में नमी और बादल पहले से मौजूद हों। - सुरक्षा और तकनीकी समस्याएं:
उच्च तकनीक की आवश्यकता होती है और उड़ान के दौरान मौसम की अनिश्चितता के कारण जोखिम बना रहता है।
🔷 दुनियाभर में कृत्रिम वर्षा की स्थिति
- चीन:
बीजिंग ओलंपिक 2008 के दौरान चीन ने कृत्रिम वर्षा कर बारिश को नियंत्रित किया था। चीन इसे बड़े पैमाने पर अपने कृषि क्षेत्र में उपयोग कर रहा है। - UAE (दुबई):
संयुक्त अरब अमीरात ने ड्रोन तकनीक से क्लाउड सीडिंग करके रेगिस्तानी इलाके में कृत्रिम बारिश की। - अमेरिका:
अमेरिका कई दशकों से कृत्रिम वर्षा का उपयोग सूखा प्रभावित इलाकों में कर रहा है।
🔷 भारत में भविष्य की संभावनाएं
भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां 60% खेती मानसून पर निर्भर है। ऐसे में कृत्रिम वर्षा का उपयोग कृषि क्षेत्र को संकट से बचा सकता है। लेकिन इसके लिए वैज्ञानिक ढांचा, बजट और नीति निर्माण की आवश्यकता है।
भविष्य में भारत सरकार अगर इसे नीति स्तर पर अपनाती है, तो यह तकनीक ग्रामीण भारत को जल संकट से उबार सकती है। साथ ही यह आपातकालीन स्थितियों (जैसे प्रदूषण, जंगल की आग) से निपटने का स्थायी समाधान बन सकती है।
🔷 निष्कर्ष
कृत्रिम वर्षा एक वैज्ञानिक वरदान है जो मानव जाति को जल संकट और मौसम की अनिश्चितताओं से निपटने में सहायता कर सकती है। हालांकि इसके दुष्प्रभावों और लागत को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
यह आवश्यक है कि इसका प्रयोग संयमित, वैज्ञानिक और नैतिक दृष्टिकोण से किया जाए। भारत में यह तकनीक धीरे-धीरे अपनाई जा रही है, लेकिन यदि इसे सही दिशा और समर्थन मिले, तो आने वाले समय में यह देश के करोड़ों किसानों और नागरिकों के लिए एक जीवनदायिनी सिद्ध हो सकती है।
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